हिमनदी चलती बहकती
गिरिवारों के तटों पर,
हो गई हर तट की तृप्ति
हिमाद्रि से मिलन कर,
माटी भी उठ चल पड़ी
सुरसरि संग सैर पर,
हो गए केवट प्रफुल्लित
भागीरथी के अंक पर,
मारुत से मिलती शीतली
कल्याणी के वेग पर,
नव कमल की देखो कमली
महकती हर तीर पर,
जल केे जल्चरों की मस्ती
श्रीधारा के तेज पर,
मल्लाह की वाणी भी गा रही
संग में सुर मिलाकर,
जन जन कर रहा है भक्ति
गंग केे आशीष पीआर,
स्वयं का आशीष देती
गंग है हर जगह पर।।
Nice
ReplyDeleteVery nice
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